प्रजापति कुम्हार समाज का इतिहास
प्रजापति समाज (prajapati samaj) जो पूर्व में कुम्हार, कुंभकार आदि नामों से जानी जाती थी का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है। कुम्हार समाज का इतिहास लिपि बद्ध तो नहीं है लेकिन वेदों से लेकर अभी तक जितने भी धर्म ग्रथ और इतिहास से संबंधित ग्रंथ और प्रमाण मिलते है उनमें कुम्हार समाज(kumhar samaj) का विवरण अवश्य मिलता है। कहा जाता है कि कला का जन्म कुम्हार के घर से ही हुआ है। मानव सभ्यता के विकास में कुम्हार का योगदान महत्वपूर्ण है। सभ्यता के आरम्भ में दैनिक उपयोग की सभी प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कुम्हार के द्वारा किया जाता है।
कुम्हार (kumhar) के इतिहास की व्याख्या करने से पहले हम यहाँ एक उदाहरण की ओर चलते है। हम उस समय में चलते है, जब न मशीनों का आविष्कार हुआ था और ना ही किसी प्रकार की तकनीक का। जब मानव अपनी सभ्यता के आरम्भ में था। जब मानव का मुख्य कार्य केवल उदर पूर्ति तक ही सीमित था। लेकिन उस उदर पूर्ति के कार्य में भी उसे कुछ सामानों की आवश्यकता थी।
जैसे- खाना पकाने व खाने के लिए बर्तन, सामानों को एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाने के लिए साधन तथा फसल उपजाने के लिए उपकरण आदि। इनमें से खाना पकाने व खाने में प्रयोग होने वाले समानों को उपलब्ध करवाने का कार्य कुम्हार जाति के द्वारा ही संपन्न होता था। सामानों को एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाने के लिए साधन तैयार करने का कार्य किया खाती समाज ने तथा खेती का कार्य किसानों के द्वारा किया जाता था। इससे यह सिद्ध होता है कि मिट्टी का कार्य करने वाली कुम्हार जाति उस प्राचीन युग में भी थी।
धीरे-धीरे मानव ने विकास करना आरंभ किया। विज्ञान के द्वारा प्रयोग होने लगे। जिसमें अनेक प्रकार की धातुओं का आविष्कार हुआ और धातुओं से बने बर्तन प्रयोग में आने लगे। जैसे – सोना, चांदी, तांबा, लोहा आदि। लेकिन अभी भी मिट्टी के बर्तनों का चलन बरकरार रहा। क्योंकि मिट्टी से बने बर्तन और पात्र सस्ते और आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। लेकिन धातुओं से बने बर्तनों का प्रचलन कम था। धनी लोगों जिनमें राजा, महाराजा, सामंत, सेठ-साहुकार आदि के द्वारा ही किया जाता था।
धातुओं के प्रयोग में मानव ने और तरक्की की और मिश्रित धातुओं का आविष्कार किया। मिश्रित धातुओं के आविष्कार के बाद धातुओं से बने बर्तनों का प्रयोग बढ़ने लगा। और यह प्रयोग बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया कि आज मिट्टी के बर्तनों की जगह प्रत्येक घर में मिश्रित धातुओं से बने बर्तनों ने ले ली है। मिश्रित धातु में स्टील, स्टेनलेस स्टील, ड्यूरेलुमिन, पीतल, जर्मन सिल्वर आदि प्रमुख है। इन्ही धातुओं के कारण कुम्हार समाज की पारंपरिक आजीविका को खत्म कर दिया है।
वर्तमान समय में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग नाम मात्र का रह गया है। केवल मिट्टी की मटकी, मिट्टी के तवे, मिट्टी के खिलौने आदि तक ही सीमित रह गया है। लेकिन आज जब स्वदेशी की बात होने लगी है तो मानव सभ्यता फिर से प्राचीनता की और दबे पाँव जाने लगी है। आज फिर मिट्टी के बने बर्तनों की बात होने लगी है।
कुम्हार की उत्पत्ति || कुम्हार का जन्म
वैदिक साहित्य के अनुसार कुम्हार (kumhar) की उत्पत्ति त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) के द्वारा हुई। कहा जाता है कि सृष्टि के आरंभ में त्रिदेवों ने यज्ञ की कामना की। लेकिन यज्ञ के लिए उन्हें मंगल कलश की आवश्यकता हुई। इसके लिए प्रजापति ब्रह्मा ने एक शिल्पी कुम्हार को उत्पन्न किया। तथा उसे मिट्टी का पात्र (कलश) बनाने का आदेश दिया।
शिल्पी ने ब्रह्मा जी से कहा कि मुझे मिट्टी का पात्र बनाने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता है। कृपया वह भी प्रदान करने की कृपा करें। तब भगवाेन विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र को चाक के रूप में प्रयोग करने के लिए दिया। भगवान शिव ने अपनी पिण्डी दी तथा ब्रह्मा जी ने अपनी जनेऊ की डोरी, कमण्डल तथा चकरेटिया दिया।
त्रिदेवों के द्वारा प्रदान किये गए इन साधनों का उपयोग करते हुए कुम्हार ने कलश बनाये। जिसमें उसने सुदर्शक को चाक, भगवान शिव की पिण्डी को धूरी, जनेऊ की डोरी, कमण्डल को पानी का बर्तन तथा चकरेटिया को चाक घुमाने के लिए प्रयोग कर यज्ञ के पात्रों का निर्माण किया। जिनका प्रयोग करके देवताओं ने यज्ञ संपन्न किया।
इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा, प्रजापालक भगवान विष्णु तथा भगवान शिव तीनों की शक्ति से कुम्हार (kumhar) का कार्य चलता है। तभी से कुम्हार और कुम्हार के बनाये बर्तनों का विशेष महत्व है।